सर्वव्याप्त

विचारों के मंच में आप सभी का स्वागत है!! आपको बता दें कि यह मंच हमारी एक पहल है हिंदी भाषा के अनूठे स्वरुप को समक्ष लाने की। और इसीलिए अगर आप हिंदी लेखन में रूचि रखते हैं तो हमें आपकी स्वरचित रचनाएं जरूर भेजें और हम आपकी रचनाओं को हमारे ब्लॉग पर प्रकाशित करेंगे। अधिक जानकारी के लिए आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

आज विचारों के मंच पर पहली कविता प्रकाशित हुई है और हर्ष की बात यह है कि यह हमारे पिता द्वारा लिखी गयी है।

सर्वव्याप्त

आज दफ्तर जाते हुए मैंने देखा कि कुछ प्लास्टर ऑफ़ पेरिस, लकड़ियों और लोहे के टुकड़ों और न जाने कितने तरह तरह के ढ़ेर रास्ते में लगे हुए हैं। तितर बितर यह ढ़ेर हर आने जाने वालों की आँखों में खटक रहे थे। आते जाते यह ढ़ेर जिनके रास्ते में बाधा बनते वह उसे पैरों से इधर उधर धकेल देता। जैसे जैसे दिन बीतते गए वैसे वैसे यह वस्तुएं एक आकार लेती गयी, इन दिनों के विचारों को एक कविता के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ।

लकड़ी के चंद टुकड़े, लोहे की टेडी मेडी सलाखें,
कुछ पतली कुछ मोटी,
कीलों व पुराने जूट के अम्बार,
प्लास्टर ऑफ पेरिस के बोरे।

तितर बितर बिखरे हुए, दुनिया वालो को टापते
हवा के हलके झोके से विचलित होने वाले।

इन ढ़ेरों को
कौन नमस्कार करेगा?
गर रास्ते में मिल जाये,
तो ठोकर मार अलग करेगा।

इनकी शक्ति को
किसी ने न पहचाना,
सिर्फ कूड़ो का ढेर ही जाना।

लेकिन, सब ढ़ेर मिल कर कह रहे हैं –

हे मूर्ख इंसान !!
आज तू जिसे ठोकर मार रहा है,
अपने से अलग कर रहा है,
कल उसी को प्रणाम करेगा,
अपने गुनाहों को उनके सामने कबूल करेगा।

हमारे अंदर भगवान विराजते हैं,
हम में भगवान बनने की शक्ति है,
क्यूंकि हम उसीसे पैदा हुए हैं,
हम उसी का अंश हैं।

ए विचलित मनुष्य !
भटकाव में डोलने वाले
तुझे मालूम नहीं,
तू भी उसी का अंश हैं।

मानव बहुत ज़ोर से हँसा,
और उपेक्षा से आगे निकल गया।

उन सभी ढ़ेरों ने,
मानव को भगवान से
साक्षात्कार कराने की ठानी।

वो बिख़रे हुए,
तरह तरह के ढ़ेर
आपस में एक तरतीब से मिल गए
एवं भगवान की मूर्ती बन बैठे।

रंगो ने मूर्ति को सँवारा,
चारों तरफ उसके
चमत्कारों का बोल बाला;
धूप दीप बाजे व ढ़ोल नगाड़ा।

मानव दौड़ा दौड़ा आया,
हाथ में कुछ फूल व प्रसाद लाया।
दोनों हाथ जोड़े,
मस्तक नीचे किए,
सुखी भविष्य मांगने लगा,
अपने पापों को क्षमा करने की,
भीख मांगने लगा ।

मूर्ती के अंग अंग से
एक आवाज़ आई,
ऐ ! मूर्ख मानव,
तू हमसे क्या मांग रहा है?
हम तो वही
लोहे, लकड़ी चिथड़ोें के ढ़ेर हैं,
हम सिर्फ आपस में
एक तरतीब से मिल गए हैं,
तथा, एक शक्ति बन बैठे हैं।

जहाँ शक्ति होती है
उसे सभी नमस्कार करते हैं,
जो तरतीब से है
प्रकृति के नियमों के अनुरूप है
वही भगवान है।

हे! मानव इसी प्रकार,
तू भी भगवन का अंश है
बस, अपने अंतरमन के तारतम्य को
थोड़ा व्यवस्थित कर लो,
बुद्धि, वाणी एवं
दृष्टि में सामंजस्य पैदा कर लो।

तुम में भी शक्ति आजाएगी,
अपने आप से जानकारी हो जाएगी,
भगवान से मुलाकात हो जाएगी,
यह जान जाओगे कि
भगवन और कहीं नहीं
तुम्हारे अंतरमन में ही है,
कण कण में है,
सर्वव्याप्त है ।

—- दीन दयाल माथुर

लेखक परिचय:


दीन दयाल माथुर रिटायर्ड चीफ कंट्रोल ऑफिसर हैं जिन्हें रचनात्मकता सदा मोहित करती है। आप एक उत्सुक पर्यवेक्षक हैं और सदा छोटी छोटी चीजों में खुश रहने की विचारधारा रखते हैं।आपके कई लेख और कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। किताबें पढ़ना और परिदृश्य चित्रकारी करने में आपकी खास रुचि है।


Leave a Reply

This Post Has 4 Comments

  1. Preeti Chauhan

    This was a really beautiful and inspirational interpretation of the making of the Ganesha Idols and how we too can take a page from this and improve our lives making them more purposeful. I myself had this thought on Ganesh Chaturthi, how some mud and some color when shaped into an idol make us lower our heads and joining our hands in submission and prayer.
    Thank you for introducing us to the work of Shri Deen Dayal Mathur ji.

  2. Harjeet Kaur

    We all have the divine in us and we have to respect that but most of us do not realise this. Wonderful poem highlighting little things we choose to ignore.

  3. Sandy N Vyjay

    This is a very poignant and thought-provoking poem. I really loved reading it and was totally blown away by the depth of its meaning.

  4. Sindhu

    Thanks for sharing a thought provoking poem . Indeed great choice of words. Much appreciated